الأدب و الأدباء

…..رَقۡص النَوارِس….

…..رَقۡص النَوارِس…..

صَمتاٌ يا نوارسي…
ولا تَتصارخي….
فالحبيبُ غائبٌ هنا… 
والفؤاد….
أَسدلَ ستائرَ الفَرح….
وأَطفئَ القَمرُ نورهُ….
وتَشاورتۡ النجوم….
مع لمعانها كي لا تتَلألأ….
فلا تَضحكي يا نوارسي…….
ولا تُداعبي الأَمواجَ….
ولا تُحاولي إِفزاعَ حُزني….
فلن يَرحل دون حُضوره….
أَلا تَعلمي أَن…..
أَنينَ الغيابِ أَذبلني….
وارتَسمَ….
هلالُ السُهد عَيني….
فلا تَرمي….
بِريشَكِ الأَبيض….
على الأَرض….
لتَصنعي….
منه وسادةً لي….
ولا تَأمريها….
بالدورانَ حولي….
لتَخلُقي نَسمة…..
باردةً لفؤادي….
ورقصَةً جَميلة….
تُلوّنُ مَكاني….
وعَزفُ كَمانٍ….
يُشۡجي مَسامِعي….
توقَفي ولا تَتبَخۡتَري…..
بِمشۡيَتُكِ لِتَسعِديني
لا عليكِ يا عزيزتي….
فالإِنتظار مهما كان….
هو كالسِكين….
موضوعً على عُنقي….
ولن أَستطيع….
هِجرانَ شاطئي….
قد يَعودُ الحبيبُ…..
ليُعيدَ الروحَ لجسَدي…..
من جَديد…..
ولا أظنني أنا…سأكون
—بقلمي—
…سهاد حقي الأعرجي…

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